टिकारी राज का ऐतिहासिक किला

डाॅ. शत्रुध्न दाँगी

गया जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम दिशा में जिले का अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक स्थापत्य कला का नमूना टिकारी राज का किला है। पाँच तलों में निर्मित इसके राजप्रसाद, 52 आँगनों का महल, भूमिगत सामरिक मैदान, सुरक्षात्मक गहरी खाईयाँ, रंगमहल, अतिथिशाला आदि इसकी भव्यता की कहानी कहती है। किले की सुरक्षा में सैनिकों के अलावा नौ बाघे भी गर्जन करते थे।

ग्लिम्पसेज आॅफ हिस्ट्री एण्ड अर्कियोलाॅजी के अनुसार टिकारी किला शहर के पश्चिमी किनारे पर नादर्न ब्लैक वेयर पाॅलिश वेयर काल के एक प्राचीन टीले पर बना है। यहाँ ग्रे-वेयर एण्ड ब्लैक-वेयर बहुतायत से पाये गये हैं। इस स्थल से पंच मार्क सिक्के भी मिले हैं। प्रख्यात पुराविद् डाॅ. विष्णुश्रीधर वाकणकर ने टिकारी राज किले का उत्कर्ष मौर्य काल में बताया है। उन्होंने मगध जनपदीय टिकारी में एक मौर्यकालीन स्तूप भी पाये जाने की संभावना व्यक्त की है। टिकारी किले का प्राचीन इतिहास महाभारत काल से मिलता है। षष्ठ त्रिगर्त के सायुवार्तोंपजीवि दण्डक वंशजों ने यहाँ प्रथम औदक दुर्ग का निर्माण करवाया था। उन्होंने 21 अन्य गढि़याँ भी बनवायी थीं। वर्तमान किला लाखौरी ईंट से मुगल शैली में बना है। इस पर चूने के मोटे प्लास्टर चढ़े हैं। पाँच तलों में बना यह किला भव्य, आकर्षक एवं स्थापत्य कला का एक सुन्दर नमूना है। पूर्व में इसके भीतर 52 आँगन थे। इसके कंगूरे, पेंटिंग्स, भूमिगत महल, तालाब, आकर्षक विभिन्न रुपों में बने खजाने एवं आयुधशाला और सुरंगों से जुड़े महल इस किले की विशेषता थी। मुख्य गेट के दायी ओर नौ हाथ के बाघ शान-शौकत एवं प्रहरी के प्रतीक थे।

टिकारी राज के किले का इतिहास वर्तमान काल में नादिरशाह की चढ़ाई 1739 ई. के बाद मुगल साम्राज्य के पतन से मिलता है। टिकारी से दक्षिण 5 किलोमीटर दूर उतरेन के एक छोटे से भू-स्वामी धीर सिंह द्वारा टिकारी पर कब्जा जमाने का उल्लेख है। धीर सिंह के पुत्र सुन्दर सिंह ने अपनी जायदाद का नौ परगनों में विस्तार किया था। इनका जन्म टिकारी से 3 किलोमीटर पूरब प्राचीन एवं ऐतिहासिक ग्राम लाव में हुआ था। वहाँ आज भी सुन्दर सिंह का गढ़ विद्यमान है। उक्त नौ परगने हैं- उकरी, सनावत, इकिल, भेलावर, दक्खनेर, आंती, पहरा, अभराथु तथा महेर। इसके अलावे कई अन्य हिस्सों में जो उन दिनों बिहार जिला एवं रामगढ़ जिला के नाम से जाना जाता था, विस्तार किया।

मराठों के आक्रमण और सैयद उल मुक्तरीन के आतंक से बचाने में यहाँ के नवाब अलीवर्दी खां को साथ देने के ईनाम में दिल्ली के बादशाह ने सुन्दर सिंह को ‘राजा’ की पदवी दी। बिहार पर कब्जा जमाने के उद्देश्य से सुन्दर सिंह ने तत्कालीन बादशाह आलम को यहाँ आमंत्रित किया और स्वयं अपनी एक बड़ी फौज लेकर उसे साथ देने हेतु तैयार हुआ। इसी बीच धोखे से अपनी सुरक्षा गार्ड के कैप्टन द्वारा 1758 ई. में गुप्त रुप से टिकारी से दक्षिण खनेटू ग्राम के पास मोरहर नदी के तट पर कत्ल कर दिया गया। इसके बाद उसका भतीजा बुनियाद सिंह टिकारी राज की गद्दी पर बैठा। वह एक शांति प्रिय व्यक्ति था। अतएव उसने शाह आलम को सहायता देने से इन्कार किया। तब सुन्दर सिंह का एक पुराना दुश्मन कामगार खां ने एक कुटिल चाल चली और राजा को टिकारी किले में ही कैद कराकर उसकी संपत्ति को बर्बाद करा दिया। फिर ज्यों ही राजा ने भागना चाहा तो उसे पकड़कर बादशाह के कैम्प में ले आया। बादशाह ने उसे कैद से मुक्त कर दिया। मुक्त होते ही राजा ने एक पत्र अंग्रेजों को राज-निष्ठा में विश्वास का वायदा देकर लिखा। संयोगवश वह पत्र कासिम अली के हाथ पड़ गया। अतः उसने पटना बुलाया और भाइयों सहित बुनियाद सिंह को 1762 ई. में मरवा डाला।

उधर इस घटना के पूर्व बुनियाद सिंह को एक पुत्र रत्न पैदा हुआ, जिसका नाम मित्रजीत था। उत्तराधिकारी के रुप में मित्रजीत के जन्म लेने के कारण कासिम अली ने एक सैन्य दल शिशु को मार डालने की नियत से भेजा, किन्तु बुनियाद सिंह की पत्नी ने बड़ी बुद्धिमानी और साहस से काम लिया। उसने अपने बालक को एक टोकरी में रख ऊपर से उपले से ढं़क कर एक विश्वासी गरीब बूढ़ी औरत के माध्यम से अपने पति के एक अति विश्वास पात्र प्रधान अधिकारी दलील सिंह के यहाँ भेज दिया। दलील सिंह ने इस बालक को बक्सर की लड़ाई के बाद तक सुरक्षित रखा और तब किले के कमांडिंग औफिसर के ऊपर का अधिकारी बनाया।

किन्तु सिताबराय के शासन में मित्रजीत को पदावनत कर उसे उसकी लगभग सारी सम्पत्ति से वंचित कर दिया। बाद में बहादुर मित्रजीत ने अपनी पूरी रियासत को वापिस ले लिया और अंग्रेजों का अति विश्वासपात्र मित्र बन गया। इसका विस्तार से वर्णन इस्टेट आॅफ द राजा मित्रजीत और द टिकारी राज स्टेट नामक पुस्तक के पेज 321 से 324 के बीच वर्णित है। राजा मित्रजीत ने पुराने किले को नये रुप में ढ़ाला, मरम्मती करवायी एवं प्रजा के हित में अनेक कार्य किये। कोल्हान विद्रोहियों को कुचल डालने में मित्रजीत ने अंग्रेजों को पूर्ण मदद की। इस कारण अंग्रेजों ने खुश होकर मित्रजीत को ‘महाराजा की पदवी दी। महाराजा मित्रजीत 1840 ई. में मर गये। इसके बाद टिकारी राज उनके दो पुत्रों के बीच नौ आने और सात आने के रुप मंे बंट गये। नौ आने का हिस्सा उनके बड़े पुत्र हितनारायण सिंह को मिला तथा सात आने का हिस्सा छोटे पुत्र मोद नारायण सिंह को मिला। बड़े होने पर पाँच वर्षों बाद हितनारायण सिंह महाराजा बने। ये चूंकि धार्मिक प्रवृति के थे, इस कारण इन्होंने अपनी संपूर्ण सम्पत्ति को अपनी महारानी इन्द्रजीत कुंअर को सौंप स्वयं सन्यासी हो गये। तब उनकी पत्नी अपने पति की राय से महाराजा रामनारायण कृष्ण सिंह को दत्तक पुत्र के रुप में गोद लिया, परन्तु इन्हें भी कोई पुत्र पैदा न हुआ और वे मर गये। इस कारण इस जायदाद के हकदार रामनारायण कृष्ण की पत्नी महारानी राजरुप कुंअर बनी। उसने इस सम्पत्ति को अपनी पुत्री राधेश्वरी कुंअर को सौंपा। महारानी राजरुप कुंअर अत्यंत धर्मपारायण, विद्यानुरागी एवं उदार महिला थी। इस कारण उन्होंने राजकीय कोष का इस्तेमाल जनहित में खूब किया। उन्होंने टिकारी में प्रथम नगरपालिका, टिकारी राज हाई स्कूल, राजकीय औषधालय एवं संस्कृत विद्यालय का निर्माण कराया। उन्होंने अयोध्या में रसिक निवास और वृन्दावन ठाकुरवाड़ी की भी स्थापना की। राधेश्वरी कुंअर की शादी मुजफ्फरपुर के चकवा निवासी अम्बिका प्रसाद सिंह से हुई। महारानी राधेश्वरी कुंअर अपने पीछे तीन वर्षीय एक छोटे बालक को छोड़ 1886 ई. में मृत्यु को प्राप्त हुई। यही बालक गोपाल शरण के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस बालक के तीन वर्ष की अवस्था में उनके नौ आने राज का प्रबंध कोर्ट आॅफ वार्ड्स द्वारा किया जाने लगा जो अक्टूबर 190र्4 इ. में मुक्त हुआ। उस समय यह राज 388 वर्गमील में फैला था, जिसका बड़ा भाग गया प्राचीन जिला औरंगाबाद, नवादा एवं जहानाबाद सहित तथा मुजफ्फरपुर, छपरा और चम्पारण में अवस्थित था।

महाराजा गोपाल शरण की शादी 1902 ई. में उत्तर प्रदेश के तमकुही स्टेट के राजा सत्यजीत प्रताप शाही की पुत्री से हुई। दूसरी शादी मुकसुदपुर स्टेट की रानी विद्यावती कुंअर के साथ हुई। किन्तु इन दोनों से कोई पुत्र उत्पन्न न हो सका। रानी विद्यावती से एक पुत्री हुई, जिसकी शादी अमावाँ स्टेट के हरिहर प्रसाद के बड़े पुत्र रघुवंश मणिनारायण सिंह कुंवर के साथ हुई। महाराजा गोपाल शरण ही इस राज के अन्तिम राजा हुए थे। आजादी के बाद वे चुनाव भी लड़े थे, किन्तु चुनाव हार गये थे। गोपाल शरण घुड़सवारी, मोटर ड्राइविंग एवं शिकार करने में सिद्धहस्त थे। प्रथम विश्वयुद्ध में इन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया था और उसमें अपने अदभुत वीरत्व का परिचय दिया था, जिससे प्रसन्न होकर अंग्रेजी सरकार ने इन्हें ‘कैप्टन’ की उपाधि से सम्मानित किया था और ईनाम स्वरुप एक फोर्ड गाड़ी भी दी थी, जो गया का प्रथम बीआरबी-1 गाड़ी थी, जिसे बाद में डाॅक्टर कर्नल स्वामी ने खरीदा।

सात आना राजा का हिस्सा जो मोदनारायण सिंह के जिम्मे था, उसका हकदार उनकी दो पत्नियाँ हुई। उनकी दो पत्नियों ने अपने स्वामी के एक भतीजे रणबहादुर सिंह को अपनी सम्पत्ति का अधिकारी बनाया। रणबहादुर सिंह को 1888 ई. में राजा की उपाधि मिली। बाद में यह राज उनकी बड़ी पुत्री को मिला। छः वर्षों के मृत्योपरान्त उन्हीं की पुत्री राजकुमारी भुवनेश्वरी कुंअर को उनकी दादी के संरक्षण में यह राज सुपुर्द किया गया। सात आना राज में 715 गांव थे तथा 582 वर्गमील में फैला था।

इसकी ऐतिहासिकता को देखते हुए लेखक ने पुरातत्व निदेशालय बिहार से इसे संरक्षित एवं सुरक्षित करने की अपील की थी। लेखक के प्रयास से पुरातत्व निदेशालय के तत्कालीन निदेशक डाॅ. प्रकाश चरण प्रसाद एक पुरातात्विक टीम को साथ लाकर इसका अन्वेषण कर इस किले को अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारक के रुप में पाकर इसे शीघ्र सुरक्षित घोषित करने हेतु जिलाधिकारी से रिपोर्ट 1991-92 में माँगी थी। किन्तु विडंबना यह है कि न तो जिलाधिकारी द्वारा अबतक रिपोर्ट सौंपी गई और न इसपर सार्थक रुप से पहल ही की गई। फलस्वरुप यह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक, पुरातात्विक एवं पर्यटन की दृष्टि से योग्य स्मारक खंडहरों में तब्दील हो रहा है और यहां पर अवैध अतिक्रमण भी जारी है।

संदर्भः- यात्रा 2010 डाॅ. शत्रुध्न दाँगी