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भगवान विष्णु के मोक्षधाम गया का सांस्कृतिक इतिहास आदिकाल से ही गौरवमयी रहा है, जो अनवरत आधुनिक युग में भी इस अस्तित्व को संजोये हुए है। हालांकि सांस्कृतिक गतिविधियाँ और उसकी उपयोगिताएं समय के साथ बदलती रही हैं, किन्तु यथार्थ में परिवर्तन पूरी तरह से व्यवसायिक रुप लेता जा रहा है। प्राचीन काल में यहाँ की सांस्कृतिक गतिविधियाँ पूजा, अनुष्ठान, भजन, कीत्र्तन आदि धार्मिक कार्यों के लिए की जाती थी। तब के समय में कुछ संभ्रांत घरानों में इसकी उपयोगिता वैवाहिक जैसे शुभ कार्यों में भी होती थी। प्राचीन काल में ऐसी मान्यता थी कि शास्त्रीय संगीत की निश्चल-निष्काम साधना भगवान से सीधा तादात्म्य बनाती है। वहीं दूसरी यह भी मान्यता थी कि संगीत साधना नगर की सुरक्षा में सहायक होता है। पौराणिक ग्रंथों में ऐसी चर्चा है कि गया जी का इतिहास आदिकाल से धर्ममय रहा है। इसका उदाहरण आज भी शहर के चप्पे-चप्पे में बने धर्मस्थल स्पष्ट तौर से प्रमाणित कर रहा है। इन सभी महत्ताओं के कारण देश के कई नामी गिरामी कलाकार मोक्षधाम आए और बाद में यहीं के होकर रह गये। वर्तमान में दयानन्द सुशीला सांस्कृतिक केन्द्र रेनेसांस इस विद्या को नया आयाम दे रहा है। शास्त्राीय संगीत के संत कहे जाने वाले देश के विख्यात संगीतज्ञ संत स्वामी हरिदास बाबा ने 1857 ईस्वी में अपने सर्वोतम एवं होनहार शिष्य हनुमान को गया लेकर आए थे। हनुमान जी की संगीत साधना ने इन्हें आगे चलकर बाबा हनुमान दास उर्फ उस्ताद जी के सम्मान से गया जी ने अलंकृत किया था। उस्ताद जी की तीन पीढि़याँ गया की ही होकर रह गयी। इस दौर में भारत के कई अन्य प्रसिद्ध संगीतज्ञ गया में महीनों रहकर संगीत का साधना की थी, जिनमें स्व. गणपत राव भैया, स्व. हाफिज अली खां, स्व. नब्बू खाँ, स्व. मोलवी राम मिसिर, स्व. मौजीउद्दीन खाँ, स्व. अख्तरी बाई, स्व. रसुलन बाई सहित कई संगीत योद्धाओं के नाम शामिल थे। स्व. रामप्रसाद मिश्र उर्फ रामू जी गया में आए और यहाँ बस गये थे। इनकी तीसरी पीढ़ी आज भी गया में संगीत का अलख जगा रहे हैं। इतना ही नहीं, भारत रत्न से सम्मानित विश्व विख्यात शहनाई वादक उस्ताद विस्मिल्लाह खाँ महीनों तक गया में रहकर अपने कला और संगीत के जादू से लोगों को अचंभित करते रहे थे। सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि इस चोटी के कलाकार ने स्व. गोविन्द लाल नगफोपफा और स्व. भोलानाथ मेहरवार के पुत्रों की शादी में बारात के साथ-साथ चलते हुए शहनाई बजाने का अद्भूत और अचंभित करने वाला मिशाल कायम किया था। इतना ही नहीं, इनके अलावा बनारस के सुप्रसिद्ध तबला वादक कंटेमहाराज जैसी कई संगीत क्षेत्र की हस्तियाँ पेशवाज पहनकर और बारातों में साथ चलकर अपनी शालीनता और सादगी का परिचय दिया था। तब के दौर में गया शहर में बने प्रायः सभी घरों में संगीत और कला के पुजारी और पुरोधा वास करते थे। उस दौर में प्रायः सभी घरों से वाद्य यंत्रों की गूंज गुंजायमान होती थी। कहीं हारमोनियम, तबला, तानपुरा बजते थे तो कहीं शास्त्राभ्यास होने की आवाजों का एहसास घरों के रास्ते गुजरने वालों को हो जाता था। इसकी चर्चा आचार्य पं. अमर नाथ बौधिया की पुस्तक ‘गया तर्पण’ में वर्णित है। इस पुस्तक के अनुसार हारमोनियम के सोलोवादक और उच्च कोटि के कलाकार जितना गया में हुए हैं, अन्यत्र देश के किसी कोने में नहीं हुए। इसी तरह का इतिहास दूसरे वाद्य की रही, जो अब प्रायः लुप्त होने के कगार पर पहुँच गयी है। इसके अलावा तबला, पखावज, सरोद, सितार आदि वाद्ययंत्रों के वादकों का यह शहर सिद्ध स्थल रहा है। तब के दौर में ‘गया की ईंट-ईंट सुरीली’ कहावत चरितार्थ थी। वहीं संगीत सीखने के ख्याल से चोटी के कई नामी गिरामी कलाकारों को यहाँ बुलाकर आयोजन भी कराते थे, जो आज के समय में भी देखने और सुनने को आसानी से मिल जाता है। 1943 ईस्वी में गंगा महल के मैदान में लगातार 72 घंटे तक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया था, जिसमें भारत के दर्जनों श्रेष्ठ कलाकारों ने हिस्सा लिया था। इस कार्यक्रम में बीष्माकार उस्ताद अब्दुल अजीज खां ने भी हिस्सा लिया था। इन सभी संगीत विभूतियों का परिणाम यह हुआ कि गया की गोद में विभिन्न संगीत वाद्य यंत्रों के क्षेत्र में संगीतज्ञ पैदा हुए, जिन्होंने गया को गौरवांन्वित किया। पंडित कन्हैया लाल ढ़ेढ़ी इस राज में माहिर हुए। ढ़ेढ़ी जी की सभा में वयोवृद्ध लाल मार्तण्ड चैमुखा उस्ताद भी अपनी कला से स्थापित होने में कामयाब हुए थे। वहीं पंडित भीकम भैया, कामेश्वर पाठक, ठाकुर दर्शन सिंह, श्याम जी भैया, पहलवान सिंह, सोनी सिंह, उस्ताद फैयाज खां, पंडित बिहारी लाल महतो, पंडित नरसिंह लाल महतो, भेलू बाबु, पंडित हरदेव जी, बैजू लाल पाठक, पन्ना लाल बारीक, शंकर लाल परवतिया, राजा जी पाठक, श्याम लाल चैधरी, नारायण लाल मिश्र, गोपाल लाल चैधरी, महावीर सिंह, पंडित माधव लाल कटरियार, उस्ताद मौजुद्दीन खां, महावीर सिंह, पंडित माधव लाल कटरियार, उस्ताद मौजुद्दीन खाँ, उस्ताद मोलवी राम, पं. रामलाल बौधिया, विश्वेश्वर लाल झंगर, बच्चु लाल झंगर, मुन्नी लाल झंगर, बच्चु लाल बौधिया, पंडित गोविंद लाल नगफोपफा, पंडित गोवर्द्धन मिश्र, बागेश्वरी प्रसाद, बाढ़न लाल टैया, कमल लाल महतो, मोहन लाल पसेरा, बच्चा बाबू गयापाल, डाॅ. मुकेश दयाल आदि दर्जनों संगीत के क्षेत्र में उत्कृष्ठ प्रदर्शन कर गया को गौरवान्वित करने में कोई कसर नहीं छोड़ा। हालांकि इन विभूतियों में कुछ काल कल्पित होकर इतिहास के पन्नों में आ गये हैं।
जैसे-जैसे समय बदलता रहा और देश पर पश्चिमी संस्कृति हावी होने लगी, इस क्षेत्र का स्वरुप भी बदलने लगा। धीरे-धीरे यहाँ के कलाकार नाटक सहित अन्य कला के विद्याओं में आने लगे। वहीं संगीत और कला के व्यवसायीकरण होने से कुछ संगीतज्ञ इस विद्या से खुद को अलग कर अपने घरों के चहारदीवारों में ही सीमटने लगे। बदलाव के बाद भी कलाकारों में कमी होने के बजाय वृद्धि होते रही। नाट्य विद्या भी 1900 ईस्वी के बाद तेजी से फलने-फूलने लगा। स्टेज शो के अलावा नुक्कड़ नाटकों का दौर तेजी से पनपने लगा। इस क्षेत्र में भी गया में एक से एक दिग्गज कलाकार पैदा हुए, जो अपनी अभिनय से लोगों को अचंभित करते रहे, परन्तु यह क्षेत्र वर्चस्वता को लेकर कई बार प्रभावित हुआ। अभिनय के क्षेत्रा में एस¬. विष्णुदेव, बांकेलाल बिहारी, गोविन्द्र प्रसाद सिन्हा, बद्री विशाल, सीने तारिका नरगिस, छप्पन छूरी, पद्मा खन्ना, जद्दन बाई, ईश्वरी प्रसाद, अवधेश प्रभास, संजय सहाय, दुर्गा सहाय, शिव कुमार, पीके बच्चन, महेन्द्र चैरसिया, डाॅ. पप्पु कुमार तरुण, नीरज कुमार, के. एम. मिश्रा, शंभु सुमन, जय श्री, प्रतिमा कुमारी, कुमारिका संयाल, मानस कुमार दा, बालगोविन्द्र प्रसाद, मनीष मिश्रा, अशोक कुमार पटवा, राजेन्द्र अकेला, राम कुमार सोनी, पी सुरेन्द्र, रामस्वरुप विद्यार्थी, बीएन गुर्जर, उस्ताद नूर मोहम्मद खां, शाहजाद खां, सुनील स्मीथ, थामा वर्मा, धर्मेन्द्र कुमार यादव, अभय कुमार, आशुतोष सिन्हा, महीधर झा महिपाल, बीएन गुर्जर, अभय नारायण सिंह, प्रवीण ओझा, शिवजी, राजू, मनीष कुमार, निर्मल पाण्डेय, आनंद कुमार गुप्ता, पप्पु जोशी, सुजीत चटर्जी, राजेन्द्र नाथ सिंह, कुमारी पद्मा, गोपा नाग, दीपा नाग, पप्पु डे, कुमारी चन्द्रकांता सहित दर्जनों नाम शुमार हैं, जो अपने दौर में अपनी अभिनय क्षमता का लोहा मनवाने में काफी सफल रहे। हालाँकि इन कलाकारों में भी कुछ का देहावसान होने से यहाँ की नाट्य क्षेत्र जहाँ प्रभावित हुआ। वहीं अभिनय के क्षेत्र में सरकारी अथवा सामाजिक स्तर पर प्रोत्साहन नहीं मिलने से मरनासन्न अवस्था में आ गया है। हालांकि यहाँ की इस चरमराती कला एवं संस्कृति को फिल्म कथाकार संजय सहाय ने गया की पावन धरती पर दयानंद सहाय सुशीला रंगशाला की स्थापना कर कुछ राहत देने का काम जरुर किया है। वहीं श्री संजय सहाय व दुर्वा सहाय के इस प्रयास से गया शहर का मान भी बढ़ा है। ऐसा माना जाता है कि इस तरह के अत्याधुनिक रंगशाला देश के कुछ गिने चुने शहरों में ही बने हैं। इनकी नाट्य मण्डली देश के विभिन्न रंगमंचों पर अपनी कला की प्रस्तुती कर वाह-वाही बटोर रहा है।