संविधान सभा में गया के तीन सदस्य

आलोक कुमार

गया के गौरवशाली इतिहास का हर पन्ना अपने-आप में स्वर्णाक्षरों में अंकित होने का मादा रखता हैं चाहे वह धार्मिक हो, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक अथवा राजनीतिक, प्रत्येक विषय अथाह समुद्र जितना गहरा है, जो गया की विशेष पहचान है।

यहाँ हम गया के राजनीति की संक्षिप्त परन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण चर्चा करने जा रहे हैं। गया की धरती ने अनेक महान विभूतियों को जन्म दिया है, जिन्होंने न सिर्फ अपने मजबूत इरादों और क्रांतिकारी विचारधारा के साथ देश के स्वतंत्रता संग्राम में काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया है बल्कि देश ही नहीं अपितु समूचे विश्व में अपने ज्ञान और बुद्धि का लोहा मनवाया है।

इन्हीं विभूतियों में तीन नाम आते हैं- ब्रजेश्वर प्रसाद, डाॅ. अनुग्रह नारायण सिंह और सरदार मोहम्मद लतीपफुर्रहमान। ये तीनों शख्स भारत के संविधन सभा के सदसय थे। पूरे भारतवर्ष में यह गौरव पाने वाला गया एकमात्र शहर था जहाँ से तीन जनप्रतिनिधि संविधान सभा के सदस्य हुए हों।

आज जब हम गया के स्थापना का 150 वां वार्षिकोत्सव मनाने जा रहे हैं तो यह मौका है उन शख्सियतों को याद करने का, जिन्होंने इस शहर का नाम रौशन किया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है ब्रजेश्वर प्रसाद, डाॅ. अनुग्रह नारायण सिंह और सरदार मोहम्मद लतीपफुर्रहमान के जीवन से जुड़ी कुछ जानकारियाँ:-

अनुग्रह नारायण सिन्हाः- 18.06.1888-05.07.1958।

अनुग्रह बाबू तत्कालीन गया जिले के पोईवां गांव में जन्में थें। शिक्षा पाने के लिए उन्हें शहर जाना पड़ा। पढ़ाई पूरी कर अपने शुरूआत के दिनों में लगभग एक वर्ष 1915 से 1916 तक टी.एन.बी. काॅलेज भागलपुर में इतिहास के प्रोफेसर के रूप में कार्य किए। 1920 तक पटना उच्च न्यायालय में वकालत की। वकालत के दौरान ही अनुग्रह बाबू का स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और स्वतंत्रता संग्राम में उनका अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस दौरान वे कई बार जेल भी गये, जिसमें व्यक्तिगत नागरिक अवज्ञा के आरोप में नौ महीने, भारत छोड़ो आंदोलन में 22 महीने के अलावा एक बार 15 महीने का कारावास शामिल है। उन्होंने महात्मा गांधी के साथ चंपारण कृषक आंदोलन जांच में भी 1917 में कार्य किया। इसके अलावा उन्होंने 1924 में पटना म्युनिसिपलिटी के उपाध्यक्ष, 1924 में गया जिला परिषद के अध्यक्ष, 1926 से 1929 के बीच राज्य परिषद के सदस्य, 1928 में बिहार राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष के पदों को भी सुशोभित किया। बिहार में 1934 में हुए भयानक भूकंप के दौरान केन्द्रीय बिहार रिलीफ फंड के सचिव एवं 1944-45 की महामारी के दौरान उत्तर बिहार कोआडिनेटिग रिलीफ कमिटी के महासचिव रहे। आजादी के बाद भारत की संविधान सभा के सदस्य चुने गये।

इसके पहले अनुग्रह बाबू 1937 से 39 तक 1948 की अंतरिम बिहार सरकार में और फिर स्वतंत्रता के बाद 1947 में बिहार सरकार में वित्त मंत्री बने। बाद में उन्होंने अंतर्राष्ट्ीय खाद्य वं कृषि संगठन के अगस्त-सितंबर 1947 में जेनेवा में हुए सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया। भारतीय प्रनिनिधिमंडल के नेपाल में 1948 में भी वे भारतीय प्रतिनिधि मंडल के सदस्य रहे। 1952 में नये संविधान लागू होने पर वे बिहार विधानसभा के सदस्य 1952 से 1957 में भी चुने गये और राज्य के वित्त मंत्री 1958 तक अर्थात् मृत्युपर्यन्त रहे।

ब्रजेश्वर प्रसाद:- 22 अक्टूबर 1911 से 7 दिसम्बर 1979। गया शहर के प्रथम लोकसभा सदस्य ब्रजेश्वर प्रसाद का जन्म 22 अक्टूबर 1911 को गया में हुआ था। उनके पिता राय बृंदावन प्रसाद गया जिला के प्रतिष्ठित जमींदार थे और उनका पैतृक गाँव रजोई अब औरंगाबाद जिला में था। लखनऊ विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में एम.ए. करने के उपरांत उन्होंने एल.एल.बी. की पढ़ाई शुरु की। तभी गाँधी जी ने सन् 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया था। गाँधी जी से वे इतने प्रभावित थे कि कानून की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर आंदोलन में कूद पड़े। इस क्रम में उन्हें कम से कम तीन बार जेल भी जाना पड़ा।

पहली बार 1941 में अपनी राजनीतिक गतिविधियों के लिए उन्हें एक साल की सजा हो गई। देश की आजादी के जुनून की वजह से उन्हें भारत छोड़ो आंदोलन की अगुआई करने के लिए चुना गया, लेकिन वे गिरफ्तार कर लिए गये और नवम्बर 1944 तक कैद में रहे। जेल से मुक्त होने के बाद गया कांग्रेस समिति के सभापति चुने गये।

बाद में जब भारत के संविधान सभा का गठन 1946 में हुआ तो वे इसके सदस्य बनाए गए। भारत के संविधान पर ब्रजेश्वर बाबू के हस्ताक्षर भी मौजूद हैं। देश की आजादी के बाद 1952 में हुए प्रथम लोकसभा चुनाव में वे गया से सांसद चुने गये। संसद का उनका सफर 1957 और 1962 में हुए लोकसभा चुनावों में भी जारी रहा। 1967 के लोकसभा चुनाव में गया संसदीय क्षेत्र को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दिया गया और वे चुनाव लड़ने से वंचित हो गये।

ब्रजेश्वर बाबू की शख्सियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब सरकार ने 1975 में उन्हें पेंशन देने की पेशकश की तो उसे उन्होंने यह कहकर ठुकरा दिया कि मैं देश की सेवा निःसवार्थ करना चाहता हूँ। उनके जीवन में पत्नी संपूर्णा देवी का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा। उनके छह लड़कियां और तीन लड़के हुए, परन्तु किसी ने भी राजनीति में कदम नहीं रखा। तीन लड़कों में बिनोद कुमार सिन्हा पैतृक गांव रजोई पर खेती-बाड़ी का काम देखते हैं, भरत कुमार सिन्हा गया इवनिंग काॅलेज में उप प्राचार्य के पद पर हैं और राकेश कुमार सिन्हा गोरखपुर में एक निजी कंपनी में कार्यरत हैं। छह लड़कियों- माध्ुारी देवी, प्रभालता, प्रियलता, नीलू कुमारी, माध्ुलिका रानी और ममता रानी में सभी की शादी हो चुकी है।

सरदार मो. लतीफुर्रहमानः-24 दिसम्बर 1900 से 31 दिसम्बर 1980। गया में सन् 1900 में जन्मे इस शख्स की खासियत थी कि वे समाज के सभी जाति-सम्प्रदाय एवं अमीर-गरीब के बीच आसानी से घुल-मिल जाया करते थे। अपनी सहृदयता और मृदुभाषिता की वजह से वे समाज के हर वर्ग के बीच खासे लोकप्रिय भी थे। उनकी वाणी में मानो जादू था और वे श्रोताओं को मंत्रमुगध कर दिया करते थे।

प्रारंभ से ही उनकी गिनती मेधावी छात्रों में होती थी। हालांकि उच्च शिक्षा के दौरान काॅलेज के लेक्चर उन्हें ज्यादा देर तक बाँध कर नहीं रख सके और 1920 में देश के आह्वान पर असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन में वे कूद पड़े। मात्र 20 वर्ष की उम्र में असीम उर्जा और देशभक्ति की भावना से लवरेज इस युवक को मौलाना मजहरुल हक ने द मदरलैंड का सहायक संपादक बना दिया। मजहरुल हक इस अखबार के संस्थापक और संपादक थे, जो सदाकत आश्रम पटना से निकलता था। बाद में लतीफुर्रहमान इस अखबार के प्रबंध निदेशक भी रहे। उन्होंने बिहार के कई संगठनों के लिए कार्य किया, जो अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें उखाड़ने में लगे थे।

उन्होंने गया में होने वाले कई महत्वपूर्ण बैठकों यथा - देशबंध्ुा सी.आर. दास की अध्यक्षता में सन् 1922 के आॅल इंडिया कांग्रेस कमिटी के महत्वपूर्ण सत्र एवं 1934 में आॅल इंडिया मोमिन काफ्रेंस की बैठक की सपफलता में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दिया। मोमिन काॅफ्रेंस में वह स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। लतीपफुर्रहमान ने काफी लम्बे समय तक आॅल इंडिया मोमिन काॅ्रफें्रस के महासचिव के रुप में कार्य किया और बाद में इसके अध्यक्ष भी चुने गये। हालांकि 1949 में उन्होंने इस संगठन से किनारा कर लिया कि आजादी मिलने के बाद देशहित में इसकी कोई जरुरत नहीं थी। अपने गृह जिला गया में भी उन्होंने कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। वे गया जिला लोकल बोर्ड के अध्यक्ष रहे और गया नगर निगम के आयुक्त एवं निबंधन पदाध्किारी के पद पर भी कार्य किया। वे कई बार बिहार विधानसभा के सदसय भी चुने गये और शुरुआती दौर में 1948 में ही विपक्षी दल के नेता की भी भूमिका निभाई। उन्होंने 1937 मंे मुस्लिम लीग की सदस्यता ग्रहण करने के बाद अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के कार्य समिति के सदस्य, बिहार राज्य मुस्लिम लीग के उपाध्यक्ष, बिहार राज्य मुस्लिम विद्यार्थी फेडरेशन के अध्यक्ष और बिहार मुस्लिम लीग सिविल डिफेंस कमिटी के अध्यक्ष के रुप में भी कार्य किया। वे बिहार से भारत की संविधान सभा के सदस्य भी चुने गये।

संदर्भः- यात्रा 2010 आलोक कुमार