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विश्व के बौद्ध स्थलों में बोधगया स्थित मंदिर महाबोधि महाविहार का एक निजी आकर्षण तथा प्रभाव है। महाबोधि मंदिर के नाम से प्रतिष्ठित यह मंदिर कब और किसके द्वारा बनवाया गया, विवादास्पद है। इस तथ्य के बारे में कोई भी स्पष्ट प्रमाण नहीं उपलब्ध हुआ है, जिसके आलोक में इसकी तिथि तथा निर्माता का नाम निश्चित किया जा सके।
इस मंदिर और स्थान की प्रारंभिक सूचना हमें चीनी यात्रियों के वृतांतों से प्राप्त होता है। ह्नेन- साँग के अनुसार यहाँ पर आरम्भ मंे अशोक द्वारा एक छोटे विहार का निर्माण करवाया गया था। उसने एक बोधिगृह का निर्माण करवाया तथा इसके चारों ओर ईंटों की एक वेष्टनी रेेलिंग बनवाई। प्रसिद्ध ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता कनिंघम ने भी ह्नेन साँंग के मत से अपनी सहमति प्रकट की है। वर्तमान मंदिर के धरातल की मरम्मत के क्रम में पश्चिमी तथा दक्षिणी दीवार के पास नींव की ईंटें प्राप्त हुई, जो अशोक कालीन है। मूल बोधिगृह नष्ट हो चुका है, किन्तु उसकी आकृति भरहुत स्तूप के वेदिका स्तंभ पर अंकित है। इस आकृति के अनुशीलन से प्रतीत होता है कि बोधिगृह की छत खुली थी, जिसके बीच में वज्रासन और उसके सामने चार अर्धस्तम्भ थे। वज्रासन के पीछे बोधिवृक्ष था। वृक्ष के दोनों ओर छोटे स्तम्भों के उपर धर्मचक्र तथा त्रिरत्न के चिन्ह अंकित थे, किन्तु वर्तमान मंदिर ऊपर वर्णित आकृति से भिन्न है। अतः यह मौर्यकालीन नहीं हो सकता।
महाबोधि मंदिर परिसर से प्राप्त अभिलेखों के आधर पर इतिहासकार बरुआ महोदय ने इस मंदिर के निर्माण का श्रेय राजा कौसिकीपुत्र अग्निमित्र की पत्नी कुरंगी को दिया है। संभवतः इसी आधार पर स्थापत्यकला मर्मज्ञ हैवेल ने इसका निर्माण काल प्रथम शताब्दी माना है, किन्तु अनेक स्थापत्य कला मर्मज्ञों ने वर्तमान मंदिर की स्थापना गुप्तकाल में स्वीकार की है। पटना के कुम्हरार क्षेत्र की खुदाई से प्राप्त गुप्तकालीन मिट्टी की एक मुहर पर बोधगया मंदिर की प्रकृति आकृति है। यह मुहर वर्तमान में पटना संग्रहालय में रखी गयी है। इसके अतिरिक्त बोधगया से प्राप्त महानाम के शिलालेख से भी यह ज्ञात होता है कि इसका निर्माण गुप्त संवत् 269 अर्थात् सन् 588-89 ई. के पहले हुआ होगा। संभवतः इसी कारण फाह्यान ने इस मंदिर का उल्लेख अपने यात्रा-वृतान्त में नहीं किया। ऐसा प्रतीत होता है कि नरसिंहगुप्त बालादित्य के शासनकाल में इसका निर्माण हुआ। क्योंकि इसी के समय में एक गगनचुम्बी शिखरमुक्त मंदिर का निर्माण नालंदा में किया गया था। इसका उल्लेख करते हुए ह्नेन साँग ने स्पष्टतः कहा है कि नालन्दा में नरसिंहगुप्त बालादित्य द्वारा निर्मित 300 फुट उँचा एक मंदिर था, जो बोधगया मंदिर के सदृश था।
अतः मंदिर निर्माण की तिथि के संबंध में इतना ही कहा जा सकता है कि इसका बीजारोपण अशोककाल में बोधिगृह के रुप में हुआ तथा वर्तमान मंदिर का निर्माण छठी सदी में हुआ। शताब्दियों तक ध्यान न देने के कारण यह मंदिर भग्न हो चुका था, जिसका जीर्णोद्धार 1880 में बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर ऐशले ईडेन के आदेश से कनिंद्यम और बेगलर ने किया। इस उत्खनन से बुद्ध मंदिर का तल जमीन की वर्तमान सतह से 25 फीट नीचे मिला। वर्तमान मंदिर 50 फीट चैड़े चबूतरे पर खड़ा है, जिसकी उँचाई लगभग 20 फीट है। इसमें सीधी रेखा का एक शुंडाकार भव्य शिखर है, जिसमें कई मंजिलें है। प्रत्येक मंजिल में चारों ओर ताखों की पंक्तियाँ है, जो कभी बुद्ध की चमकती मूर्तियों से अलंकृत थी। इस तथ्य का समर्थन मंदिर का पश्चिमी भुजा के आलों से होता है, जिसमें कुछ मूर्तियाँ अभी विद्यमान है। इस शिखर की उँचाई लगभग 165 फीट है। शिखर का शीर्ष आमलक से मंडित है तथा ऊपर एक छत्र सुशोभित है। शिखर के अग्रभाग में प्रकाश के लिए मालाकाराग्र लम्बी खिड़की है। मुख्य देवालय के चारों कोने पर सामान्य आकार के लघु शिखर युक्त देवालय है। इसके कारण यह पंचायतन मंदिर का रुप प्रस्तुत करता है। गर्भगृह में मिट्टी से बनी बुद्ध की प्रतिमा भूमिस्पर्श मुद्रा में आसीन है। मंदिर का प्रवेश पूर्वाभिमुख है। पहली मंजिल पर जाने के लिए सिढि़यां है। मंदिर से सटे पश्चिम में बोधिवृक्ष और वज्रासन है।
बोधगया महाबोधि मंदिर की निर्माण योजना एवं वास्तुविन्यास विशिष्ट है, जो अन्यत्र नहीं दिखलाई पड़तां इसी कारण गुप्त स्थापत्य-कला में इसका स्थान सर्वाेपरि है।
महाबोधि मंदिर के चारों ओर स्थित प्रस्तर वेदिका स्तंभ प्रारंभिक कला की अनुपम कृति है। इस स्तम्भों पर अलंकरण भरहुत से मिलता-जुलता है, किन्तु प्रस्तुतिकरण में उससे ज्यादा अच्छा है। इन वेदिका स्तम्भों पर अनेक जातक कथाओं के चित्र अंकित किये गये हैं। इन्हीं स्तम्भों पर सूर्य का चित्र भी मिलता है, जो धर्मिक सहनशीलता और समवाय का बेजोड़ उदाहरण है। सूर्य का रथ चार घोड़ों पर दौड़ रहा है। दो-दो घोड़े एक ओर है। रथ एक पहिये का है। रथ पर बैठे सूर्य के पीछे चक्र सी चीज उत्कीर्ण है। सूर्य के दोनों ओर एक-एक नारी मूर्ति धनुष-बाण लिये हुई है, जो उषा और प्रत्यूषा है। सूर्य की सभी प्राप्त मूर्तियों में यह चित्र एक अत्यन्त प्राचीन मूर्ति है। मंदिर के इन स्तम्भों पर वृत्ताकार पदक सदृश कमलों पर राशियों की मूर्तिमान आकृतियाँ उत्कीर्ण है। इनमें मेष, वृष, मिथुन, कर्क, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन राशि सहज में पहचाने जा सकते हैं। बौद्ध श्रीमा का भी चित्र उत्कीर्ण है। शलमंजिका नारी के चित्रण में कलाकार ने स्त्री-सौन्दर्य के विशिष्ट गुणों को उजागर किया है। भरहुत मध्य प्रदेश से अधिक प्रगतिशील कदम उठाते हुए यहाँ स्त्री-पुरुष को प्रेमालिंगन करते दिखाया गया है। वृक्ष, लताओं, कमल-नालों और प्रकृति की रसवन्ती भुजाओं में सृष्टि की सभी चीजों के सोल्लास समा जाने का दृश्य अत्यंत रहस्यमय, पर प्रभावोत्पादक ढंग से उत्कीर्ण किया गया है।
भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के तीसरे सप्ताह में टहलते हुए विमुक्ति का आनन्द लिया था। बुद्ध के जीवन से संबंध्ति इस महत्वपूर्ण स्थल पर स्मारक निर्मित किया गया, जो रत्न-चंक्रमण चैत्य के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में विद्यमान इस स्थल की निर्माण योजना इस प्रकार की है- 53 फीट लम्बी, 3 फीट 6 इंच चैड़ी तथा 3 फीट से कुछ ज्यादा उँची पूर्णतया ईंटों से निर्मित एक प्लेटफार्म। इसके सतह पर क्रम से 18 कमल के फूल उत्कीर्ण है, जो बुद्ध के पदचिन्हों को प्रतिबिम्बित करते हैं। बुद्ध के चरण-चिन्हों के सामने 16 नारी-मूर्तियाँ अर्द्धनग्नावस्था में हाथों में सनाल कमल फूल लिये उनके पदों को समर्पित करने के भाव में खड़ी मिली थी। संभवतः ये सभी नारी नाग- कन्याओं की प्रतीक थी, जो पराजित होकर उनके चरणों में खड़ी थी। इनमें से अब केवल दो मूर्तियां ही उपलब्ध है, जो बोधगया के सं्रग्रहालय में सुरक्षित हैं।
इन स्मारकों के अतिरिक्त पूरे मंदिर परिसर में अनेक ऐतिहासिक स्तूप हैं। इनके अतिरिक्त मुचलिंद सरोवर, साधना उद्यान भी देखने योग्य है, जो एक वर्ष पूर्व निर्मित हुआ है।