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एक धार्मिक केन्द्र के रूप में गया की महत्ता अत्यंत प्राचीन है और इतिहास काल के प्रारंभ से ही इसके उदाहरण मिलने लगते हैं। एक स्थापित धार्मिक केन्द्र के रूप में गया की महत्ता का प्राचीनतम उदाहरण रामायण एवं महाभारत के अतिरिक्त बौद्ध ग्रंथ विनय पिटक के महावग्ग में द्रष्टव्य है, जहां गया के धार्मिक साम्राज्य पर तीन कश्यप बंधुओं-उरूवेल कश्यप, नदी कश्यप तथा गया कश्यप के प्रभुत्व की चर्चा है। कहा गया है कि इनके द्वारा आयोजित महायज्ञ में अंग एवं मगध दोेनों महाजनपदों के असंख्य जन भाग लेकर कश्यप बंधुओं को उपहारादि प्रदान करते थे। परवर्ती काल में गया शैव एवं वैष्णव दोनों सम्प्रदायों के एक सशक्त केन्द्र के रूप में उभरा, परन्तु भारत की नहीं अपितु विश्व के मानचित्र गया की पहचान बौद्ध धर्म एवं श्राद्ध कर्म ने दिलायी। बौद्ध धर्मावलम्बियों के लिए यह चतुर्थ बौद्ध महातीर्थोें में एक है जबकि हिन्दुआंे के लिए श्राद्ध कर्म हेतु सर्वश्रेष्ठ पितृतीर्थ। अतः गया में विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों और विभिन्न काल-खंडों के मंदिरों का होना स्वभाविक है।
गया का प्राचीनतम मंदिर उरूवेल कश्यप की अग्निशल को कहा जा सकता है। महावग्ग में कहा गया है कि इसिपतन (सारनाथ) में धर्मचक्र प्रवर्तन के पश्चात बुद्ध जब उरूवेल (बोधगया) वापस लौटे तो उन्होंने रात्रि विश्राम हेतु उरूवेल कश्यप से अनुमति एवं स्थान के लिए अनुरोध किया। स्थानाभाव बताते हुए उरूवेल कश्यप ने कहा कि यदि वे चाहंे तो उनकी अग्निशाला में रात्रि विश्राम कर सकते हंै। उक्त अग्निशाला का एक अत्यंत सजीव अंकन सांची स्तूप के पूर्वी द्वार के बायें स्तम्भ की भीतरी सतह पर मध्य में है। इसे सभी विद्वानों में मंदिर की संज्ञा दी। यह एक छोटा षट्कोणीय मंदिर है जिसके गर्भ गृह में एक वेदी पर अग्नि प्रज्वलित दिखायी गयी है और अग्नि के पीछे (संरक्षा हेतु, जैसा कि बौद्ध साहित्य में कहा गया है) पंच शीर्ष सर्प छत्र अंकित है। गर्भगृह के उपर गुम्बदाकार छत है, जिसकी पसलियां स्पष्टतया अंकित की गयी है, और गुम्बद में बने गवाक्ष से आग की लपटें बाहर निकल रही हैं।
भारतीय मंदिर स्थापत्य की दृष्टि में यह मंदिर अत्यंत महत्वपूर्ण है। सामान्यतः यह माना जाता है कि भारत में गुम्बद निर्माण की कला मुगलों के साथ आयी, परन्तु अग्निशाला की गुम्बदाकार छत यह प्रमाणित करती है कि गुम्बद निर्माण की कला एवं तकनीक भारतीय स्थापतियों को कम से कम छठी शती ई. पूू. में मालूम थी। दूसरे यह गुम्बद निश्चित रूप से ईंट या पत्थर का बना था क्योंकि यदि यह काष्ट-निर्मित होता तो कलाकार इसके गवाक्ष से निकलती आग की लपटों का अंकन कदापि नहीं करता। यह मंदिर दो तथ्यों- (1) भारतीय स्थापतियों को गुम्बद निर्माण की कला एवं तकनीक इतिहास काल के प्रारंभ से ही मालूम थी और (2) छठी शती ई.पू. मे लकड़ी के साथ-साथ ईंट पत्थर से भी निर्माण कार्य हो रहे थे, को स्थापित करता है।
कहा जाता है कि अशोक ने अपने राज्यकाल के ग्यारहवें तथा बाइसवें वर्ष में सम्बोधि (बोधगया) की यात्रा की और वज्रासन, जहां बैठकर सिद्धार्थ गौतम ने सम्बोधि प्राप्त की, उपर एक मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर का अंकन भरहुत के एक पट्ट पर है, जहां स्तम्भों पर आधारित एक मंडप दिखाया गया है। मंडप के उपर दो गवाक्ष युक्त गजपृष्टाक छत और उसके पृष्ट भाग से उत्थित होता बोधिवृक्ष अंकित है। इस अंकन पर ‘भगवतो शाक मुनियों बोधि’ अभिलिखित है। साहित्यों में अशोक द्वारा निर्मित इस मंदिर को ‘बोधि वज्रासन गंध कूटि’ आदि की संज्ञा दी गयी है। तत्कालीन स्थापत्य कला को पृष्टांकित करता यह अंकन महाबोधि के विकास के क्रम में मील का एक पत्थर सावित हो रहा है।
ऐसा प्रतीत होता है कि इसके बाद शुंग एवं कुषाण काल में मंदिर अथवा किसी स्वतंत्र धार्मिक संरचना का निर्माण मंद अथवा इसका अभाव रहा क्योंकि साहित्य एवं पुरातत्व दोनों स्त्रोत इन कालों में धार्मिक संरचना के निर्माण पर मौन था परन्तु इन्हीं स्रोतों के आधार पर इतना निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इन कालों में पूर्व निर्मित संरचनाओं को परिकीर्ण किया गया और स्थायित्व प्रदान किया गया।
गुप्त काल से पुनः इस क्षेत्र में मंदिर निर्माण का जो दौर प्रारंभ हुआ वह अनवरत पाल एवं बाद के उत्तर-मध्य काल तक जारी रहा। गुप्त काल का प्राचीनतम उदाहरण अक्षयवट स्थित बटेश्वर शिव का मंदिर कहा जा सकता है। आज की तिथि में यह मंदिर आधुनिक ईंट सीमेंट का बना हुआ है और इसकी वास्तु योजना में एक वर्गाकार गर्भ गृह और उसके उपर लघु पिरामिडाकार शीर्ष मात्र है। गुप्तकालीन एक अन्य उदाहरण है- भैरव स्थान का मंदिर। पूर्व एवं पश्चिम की ओर इस मंदिर में दो द्वार हैं और दोनों द्वारों पर लगे गंगा, यमुना युक्त द्वार स्तम्भ इसकी गुप्तकालीन सम्बद्धता को प्रमाणित करते हैं। इसी प्रकार का द्वार स्तंभ मंगला गौरी पर्वत (भस्म कूट) पर स्थित जनार्दन विष्णु के मंदिर में भी लगा है परन्तु शिखर एवं वास्तु योजना इस मंदिर की तिथि बाद में (पालकी) में ले जाते हैं। ऐसा प्रतीत हेाता है कि गुप्तकाल में निर्मित इस मंदिर का पाल काल में जीर्णोद्धार एवं विस्तार किया गया। अक्षयवट स्थित बटेश्वर शिव मंदिर मे लगे पाल कालीन अभिलेख में बटेश्वर शिव मंदिर के जीर्णोद्धार एवं प्रपितामहेश्वर शिव मंदिर के निर्माण की बात कही गयी है। प्रपितामहेश्वर मंदिर एवं जनार्दन विष्णु मंदिर के शिखर में काफी समानता है। जनार्दन विष्णु मंदिर के ठीक नीचे उसी पर्वत पर चट्टान को काटकर बनाया गया मंगला गौरी गुहा मंदिर को वास्तु योजना के आधार पर गुप्त कालीन प्रारंभिक मंदिरों में एक कहा जा सकता है। यदि गया स्थित गुप्तकालीन मंदिरों का क्रम निर्धारित किया जाय तो वह इस प्रकार होगा - (1) अक्षयवट स्थित बटेश्वर शिव का मंदिर (2) मंगला गौरी मंदिर (3) जनार्दन विष्णु का मंदिर एवं (4) भैरव स्थान का मंदिर।
परवर्ती गुप्त कालीन मंदिर स्थापत्य कला का सर्वश्रेष्ठ एवं परिपक्व उत्तर भारतीय मंदिर स्थापत्य कला व नागर शैली का एकमात्र उदाहरण हैं- बोधगया स्थित वर्तमान महाबोधि मंदिर। निश्चित साक्ष्य के अभाव में इस मंदिर के निर्माण तिथि के प्रश्न पर विद्वानों मंे मतभेद है पर छठी शती ई. के प्रारंभ में निर्मित यह मंदिर काल के थपेड़ों को झेलता आज भी उतना ही भव्य है। सातवीं शती ई. में भारत आया चीनी यात्री ह्वेन सांग ने महाबोधि मंदिर की भव्यता का जो विवरण प्रस्तुत किया है वह ऐसा प्रतीत हेाता है मानो वह आज के मंदिर की भव्यता की प्रस्तुति कर रहा हो। ईंट एवं चूना सुर्खी से पंचायतन शैली में बनाया गया मंदिर भारत के प्रमुख मंदिरों में एक है और यह गया क्षेत्र को अन्तरराष्ट्रीय मानचित्र पर स्थापित करता है।
इसके बाद के काल में इस क्षेत्र में मंदिर निर्माण में एक विराम सा लग गया प्रतीत होता है, यद्यपि तीर्थ यात्रा और धार्मिक कार्यों हेतु यात्री आते रहे जो इस क्षेत्र से प्राप्त अभिलेखों में प्रमाणित होता है। धार्मिक स्थापत्य और कला के क्षेत्र में दसवीं शती ई. में पालों के आगमन के साथ एक नये युग का सूत्रपात होता है। पाल राजाओं और उनके बाद के काल में गया क्षेत्र में अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ और कुछ प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार किया गया। पाल काल में निर्मित मंदिरों की वास्तु योजना और विशेषकर बंग शैली का जबर्दस्त प्रभाव पड़ा जो स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है। इस काल में बने मंदिर, जैसे प्रपितामहेश्र का मंदिर, मार्कण्डेश्वर का शिव मंदिर, जनार्दन विष्णु का मंदिर। इन मंदिरों के शिखर लम्बवत उपर की ओर कुछ दूर तक धीरे-धीरे पतले होने के बाद से पतला होकर परवलयिक वक्र बनाते हैं और पूरे शिखर पर चारों ओर क्षैतिज पट्टियों के द्वारा अलंकृत की गयी है। निर्माण कार्यों में प्रस्तर एवं ईंट-चूने दोनों का प्रयोग किया गया है। प्रतिमा और अन्य कलाकृतियों का निर्माण में स्थानीय फाइलाइट पत्थर का इस्तेमाल हुआ और एक नयी कला शैली का प्रादुर्भाव हुुआ जिसे पाल कला की बिहार शैली की संज्ञा दी जा सकती है।
परवर्ती पाल काल और मध्य काल में गया में अनेक मंदिर बने जिनमें गृद्धेश्वर शिव का मंदिर, दक्षिण स्थित सूर्य मंदिर, कृष्ण-द्वारिका मंदिर, विष्णुपद मंदिर और उसके परिसर में बने कुछ अन्य मंदिर, गदाधर विष्णु का मंदिर प्रमुख हंै। इन मंदिरों पर मध्य भारतीय मंदिर स्थापत्य शैली का प्रभाव है। इन मध्यकालीन मंदिरों के शिखर का अलंकरण उरूश्रृंग और अंग शिखरों के माध्यम से किया गया है। इन मंदिरों की वास्तु योजना में गर्भगृह के अतिरिक्त तीन ओर से खुला सभा मंडप प्रमुख है। इन परवर्ती मंदिरों में सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि इनमें प्रतिष्ठित प्रतिमायें पाल कालीन हैं।
मंदिरों में जहां तक देवताओं के प्रतिनिधित्व का प्रश्न है ब्राम्ह्ण धर्म के सभी देवी-देवताओं, यहां तक कि उनके विभिन्न रूपों के लिए अलग से मंदिर बने। ब्राम्ह्ण त्रिदेव में ब्रम्ह्ा के मंदिर नगण्य हैं। परन्तु गया क्षेत्र मंे दो मंदिर उनके लिए स्थापित कहे जा सकते हंै, जो प्रपिता महेश्वर एवं पिता महेश्वर के मंदिर हैं। प्रपितामहेश्वर मंदिर में ब्रह्मा को शिव के साथ प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ है जहंा ब्रह्मा को यज्ञोपवित के साथ शिव लिंग में ही अंकित किया गया है। पितामहेश्वर मंदिर में अनेक देवी देवताओं के साथ चतुर्मुख शिव लिंग के रूप में ब्रह्मा को स्थान दिया गया है। विष्णु मंदिरों में विष्णुपद के अतिरिक्त गदाधर विष्ण्ुा, जनार्दन विष्ण्ुा, नरसिंह पुण्डरीकाक्ष, कृष्ण-द्वारिका आदि मंदिर प्रमुख हैं। गया के मंदिरों में शिव मंदिरों की संख्या सर्वाधिक है। गया के प्रमुख शिव मंदिर हैं- गृद्धेश्वर शिव मंदिर, कर्दश्वर शिव मंदिर, मार्कण्डेश्वर शिव मंदिर, बटेश्वर शिव मंदिर, फल्केश्वर शिव मंदिर, मातंगेश्वर शिव मंदिर आदि। गया स्थित शक्ति मंदिर हैं- मंगला गौरी, गायेश्वरी, बगला स्थान, आनन्दी स्थान, ब्राम्ह्णी घाट मंदिर आदि। गया में सौर सम्प्रादाय भी काफी लोकप्रिय रहा प्रतीत होता है। यहां तीन प्रमुख सूर्य मंदिर हैं। ये उत्तर मानस स्थित प्रातः सूर्य का मंदिर, ब्राह्मणी घाट स्थित मध्यान् सूर्य का मंदिर और दक्षिण मानस स्थित सायं सूर्य के मंदिर हैं। ब्राम्ह्णी घाट स्थित मंदिर में आदमकद सूर्य की अत्यंत भव्य प्रतिमा प्रतिष्ठित हैं। गया के कई अन्य मंदिरों में भी सूर्य की छोटी-बड़ी प्रतिमाएं देखी जा सकती है। कई मंदिरों में सूर्य पुत्र रेवन्त की भी प्रतिमाएं लगी हैं।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि गया में ब्राम्ह्ण धर्म के सभी सम्प्रदायों को समान रूप से सम्मान दिया गया। मंदिरों के अतिरिक्त गया स्थित पर्वतों, नदी, झरनों, जंगलों, वृक्षों को भी देव तुल्य बताया गया है। पिंडदान अथवा श्राद्ध कर्म के क्रम में सभी देवी-देवताओं के अतिरिक्त जैविकी तथा वानिकी के सभी प्रतिनिधियों को श्राद्ध-तर्पण गया में श्राद्ध कर्म करने वाला सभी धर्मों, सभी जीवों और वनस्पतियों के साथ पूरे ब्रह्माण्ड से अपना व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित करता है। इस प्रकार गया में श्राद्धकर्म के क्रम में विश्व-वन्धुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना सहज ही चरितार्थ हो उठती है।